बहुत अलहदा हैं ये अंदाज़ दानिश , समंदर की लहरों की तरह मचल के
कभी ढूंढ लाते हैं यादें मेरी वो , कभी डूब जाते हैं उनमें ही ढल के
कभी सीप मानिंद मोती बनाते ,कभी बन के आते हैं ख्वाबों से हलके
कभी तितलियों की तरह बन के रंगीं , लुभातेे रहे मेरे जज्बों से मिल के
यही तो कशिश है तेरे पैरहन मैं , के मैं जैसे खोया हूं दीवानेपन मे
तुम्हीं मेरा कल थे ,तुम्ही मेरा कल हो ,तुम्ही मेरे एहसास हो आजकल के
तुम्हारी निगाहो मे है जिंदगी भी , तुम्हारे लिये है हरेक बंदगी भी
मेरे सारे अरमान तुम तक हैं जाते ,औ रह जाते हैं तुम सेे मिल कर पिघल के
ये कैसे हुआ है ,ये कब से हुआ है, नहीं मुझ को मालूम पर यूं हुआ है
कभी गीत बन के ,कभी मीत बन के , तुम्ही हो वो अल्फाज मेरी गज़ल के
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