जो खुद सरेआम है उस सरेआम क्या करोगे ,जो खुद भुला देता है सबकुछ उसकी पहचान क्या करोगे,जुबा पर तुम नहीं रहते इल्ज़ाम उसे क्यों ,अरे इश्क़ तो कुछ बदनाम है उसे बदनाम क्या करोगे
हर रोज सुनते हो नज्म़ कभी खुद भी सुना दिया करो,
हमारी महफ़िल में कर शिरकत चार- चांद लगा दिया करो,
बड़ी तहज़ीब से सुनते हो आलम-ऐ-इश्क किसी का,
कभी बैठ हमारे साथ हाल-ए-दिल अपना भी बता दिया करो..
तुम्हारे इश्क के दरिया पर सन्नाटा क्यों छा रहा है,
किसी को डूबने नहीं दे रहे हो या कोई डूब नहीं पा रहा है,
कब तक लगाते रहे हम ताक साहिल पर खड़े होकर,
अन्दर कोई और है या हमें नहीं बता पा रहा है...
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