ज़िंदगी की सुबह बहुत ही खूबसूरत होती है
उगते सूरज की भांति सपनो का उदय होता है,
जैसे सारे जीव जंतु अपने कार्य में रत्त हो जाते हैं
वैसे ही शरीर के सारे अंग कर्मों में संलग्न हो जाते हैं
आंखें नई दुनिया को देखती है और समझती है
कान सुनते हैं और बोलने को शब्दों की समझ देते हैं
हृदय प्रेम रस को रक्त प्रवाह के साथ संचालित करता है
और मस्तिष्क जिज्ञावश हर नई चीज को अपनाता है,
जैसे जैसे दोपहर आती है, यौवन परवान चढ़ता है
अपनी ही अग्नि में खुद मचलकर जलता जलाता है,
कभी तो बादल रूपी विकट परिस्थितियों में उलझ जाता है
और कभी उन्हें चीर कर किसी योद्धा की तरह सामने आता है,
अपने इसी जीवन काल में ये कितना कुछ सीखता सिखाता है,
कितनों को हंसाता है रुलाता है, बनाता और बिगाड़ता है,
धीरे धीरे ये अग्नि ठंड पड़ने लगती है, जैसे सांझ पड़ती है,
सपनों के रंगों को इस जगह जैसे विराम सी लग जाती है,
मन में तैरते उमंगों को जैसे अपने घोंसले की याद आती है
वो सब एक एक कर जैसे आंखों की रौशनी साथ चले जाते हैं
और ये जिस्म भी ठंडी रात के लिए तैयार हो जाता है
जिसमें इसका अंग अंग शिथिल पड़ने लग जाता है
जीवन का दिन यूं ही बनते संवरते निकल जाता है।
©Anupam Mishra
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