जलती लपटों में ख़ुद को कहीं खोज रहा हूँ,मैं एक शहर बोल रहा हूँ।
शोषितों और पीड़ितों के दर्द को झेल रहा हूँ,मैं एक शहर बोल रहा हूँ।।
हार के बाद भीड़ का गुस्सा देख रहा हूँ,जीत के बाद भी आक्रोश को सह रहा हूँ,मैं एक शहर बोल रहा हूँ।
मेरी पहचान धूमिल सी होती मालूम होती है मुझको,मैं उसको समेट रहा हूँ,मैं एक शहर बोल रहा हूँ।।
मेरे लोगों का कत्ल हो रहा है,मेरे लोगों का घर मेरे सामने जल रहा है,मैं सब देख रहा हूँ,मैं शहर बोल रहा हूँ।
मेरी ही नही मेरी बेटियों की भी इज्ज़त का सौदा हो रहा है,मैं बाज़ार में बिक रह
खिश्तो से बने मकां भी ढह जाते है अगर क़याम न हो।
हम दश्त में रहने वालों को इतनी परेशानी कहाँ।।
और खुल्द की चाहत सबकी पूरी नही होती।
हम मुफलिसी में गुज़र करने वालो में इतनी चाहत कहाँ।।
-: ज्ञानेंद्र
कायम- ठहरना
दश्त- जंगल
खिश्तो-ईंट
खुल्द-स्वर्ग
मुफलिसी-गरीबी
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