"माँ" यह बहोत छोटा शब्द है,
पर "माँ" के इस शब्द मे इतनी ताकत होती है,
जो सारे दर्द मिटा देती है।
"माँ" तो वो आत्मशक्ति होती है,
जिसके नही कोई शब्द होते है,
नही इन्हे बड़े-बड़े शब्दो मे पिरोया जा सके।
"माँ" तो जन्नत का वो एहसास होती है,
जैसे कड़कति धूप मे छाया मिल जाए,
वो मेरी "माँ" होती है।
मुझे जरूरत नही होती बताने की मैं कैसी हूँ,
मेरी मन की सारी बाते समझ जाती है वो,
भूख उसे लगे मगर पहले वो मूझे पूछती है,
वो मेरी "माँ" होती है।
जब सारी दुनिया मूझे तोड़ देती है,
तब वो मुझे एक-एक इट की तरह
जोड़ के मजबूत बनाती है,
वो मेरी "माँ" होती है।
"माँ" की गोद तो वो मखमल सकून है,
जहाँ सारे थकावट दूर हो जाते है,
ओर सकून की नींद मिल जाती है।
सुबह के सूरज की पहली किरण,
और रात को रोशनी बना दे,
वैसी मेरी "माँ" होती है।
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