White अपना कहकर आप,फिर ग़ैर समझते हो
गैराना ताल्लुकात में, फिर क्यु उलझते हौ
बेहाल आखे , हिसाब मांगती है अश्कों का,
गोरे गाल पर रोज़ फिर क्यु फिसलते हो
खुले आसमान में,चांद से मिलाकर आंखें,
हुस्नकी नज़ाकत,से,फिर क्यूं बिखरते हो
बैताब इस दिलमे, बहुत तमन्नाएं बसी है,
उम्मीदों का बाजार खुला फिर क्यूं रखते हो
खाक और मीट्टीमे, कुछ भी फर्क कहां है?
फिक्र ज़िंदगीमे बेफिजूल ,फिर क्यूं करते हैं
आसान कहां है ? फरमाएं इश्क़ मिज़ाज,
हाल ए दिल हक़ीक़त में फिर क्यूं मचलते हो
©Mohanbhai आनंद
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