सपनों और ख़्वाहिशों से
भरी कश्ती ले के निकला हूँ।
पर बोझ थोड़ा ज्यादा है।
कई दफा डूबा हूँ।
निढाल हो के तैरा हूँ।
उम्मीद के किनारों तक
पहुंच तो जाता हूँ।
पर क्षितिज से मुलाकात
कि ख्वाहिश दिल में
अभी भी जिंदा है।
लगता है नया कोई सफर
शुरू होने को है।
क्यूँ खुद जलकर भी
मुझे उजाला दिख रही हो?
आंसुओं की सीलन को
क्यूँ तुम पानी बता रही हो?
मुझसे ही मिले ये जख्म
सहने के बावजूद
खुद जलकर फिर मेरी सलामती
के दिये जला रही हो ?
- जज़्बात
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