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भीगे थे सब यहां होली के रंग में.. मैं उसमें भीग के भी सूखा खड़ा था रंगों की भीड़ के बीच.. मैं अपने रंग को ढूंढ रहा था यूँ तो उड़े रंग खूब मुझपर.. पर तेरे संग का रंग अब भी सबसे उम्दा था शोर तो था रंगों का बाहर पर.. भीतर एक बेरंग सन्नाटा था खुश तो दिख रहा था शायद मैं लेकिन.. तेरी मोहब्बत का रंग अब भी नहीं लगा था रंगों के त्योहार पे तुम बिन मैं.. आज भी फीका खड़ा था ~अमित वर्मा ©Amit Verma
Amit Verma
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'जीवन कम पड़ गया' यूँ तो मैं समंदर पार कर गया एक पल में चंद कदमों की दूरी को एक जीवन कम पड़ गया यूँ तो छू लिया नभ का भी अंतिम छोर उसका हाथ छूने को एक जीवन कम पड़ गया देख लिया धरा की गहराई को नापकर उसकी आँखों कि गहराई नापने को एक जीवन कम पड़ गया चूम लिया पर्वत की सबसे ऊंची चोटी को उसका माथा चूमने को एक जीवन कम पड़ गया लगा लिया जीवन के हर ख्वाब को गले उसे गले लगाने को एक जीवन कम पड़ गया ✍️ ~ अमित वर्मा ©Amit Verma
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आंखो का तालाब आंसुओं से भर सा गया है मेरी कहानी का अहम किरदार मर सा गया है किसी और कि मिलकियत के लिए इतना सजदा मेरी बंदगी से अब तो खुदा भी डर सा गया है ©Amit Verma
जो भी लिखा दिल से लिखा कभी दिमाग से नहीं लिखता मैं अपनी जिंदगी के जज्बात लिखे कभी किसी किताब से नहीं लिखता मैं मेरे मिश्रों में खुबसुरती कम और सादगी ज्यादा मिलेगी मैने उसका दिल पढ़ा है कभी उसके चेहरे के हिसाब नहीं लिखता मैं ©Amit Verma
जमींदारी प्रथा में जैसे न छोड़ने वाली लगान है वो बाबर के काबुली बाग के फूलों की शान है वो रूप में जोधा मस्तानी सी सुंदर है मगर इससे बढ़कर पद्मावत के महान स्तीत्व के समान है वो ©Amit Verma
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