*शीर्षक* : *वो जो मुझे कभी बड़ी नही होने देती*
बड़ी हो गयी हूँ मैं अब । बहुत बड़ी और सबूत है मेरा खुद के पैरोँ पर खड़ा होना । अच्छा खासा कमा भी लेती हूं उतना की खुद का खर्चा पानी चल जाये ।
बना और पका भी लेती हूं उतना की खुद का पेट जींम जाये । भाईसाहब हमारे हिसाब से बड़ा हो जाना इसे ही कहते है किसी पर निर्भर ना होना ।
अब आप कहो कि कुछ ज्यादा ही गुरूर दिखा रहे है तो एक और सबूत है ।
हमारा आस पड़ोस, रिश्तेदार और ये समाज । एक मौका नही छोड़ते कहने का की उम्र हो गयी है शादी क्यूँ नही कर लेती ।
लड़कियों की सही उम्र पर शादी होनी चाहिए। बड़ी भी तो हो गयी हो ।
खैर ये नौकरी, दुनिया भीड़ भाड़ और आगे दौड़ने की होड़ में ज्यादा सोचने को कुछ बचा कहा है। पर हमें बहुत याद आते बचपन की बेफिक्री और बेपरवाही के दिन।
जिसमे हम दुनिया के बंधन से परे थे।
अभी तो एक शहर से दूसरे शहर को नापते है बस। बचपन मे हमारे गांव के हर गली मोहल्ले को हर दिन नापते थे, खेत से नहर, फिर नदी और पेड़ की लंबाई नापना।
हसीन थे वो दिन। पर अब हर एक चीज़ एहसास दिलाती है बड़े होने का । बहुत बड़े हो गये है हम।
*बस एक इंसान है जो हमे बड़ा नहीं होने देता* वो है *मां*
जब मैं ऑफिस का काम करती हूं । और समझदारी की बात करूं तो कहती है
*खुद में कोई समझदारी की चीज़ है अभी भी बच्ची हो तुम*
जब में ट्रेनिंग दे रही होती हूं तो फिर से शुरू
*खुद को कुछ आता है जो दूसरों को कुछ बताने चली हो*
घर के काम और या रसोई , कितने भी अच्छे से करूँ
*खामी निकाल ही देती है और कहती है अभी भी बच्ची हो , कभी तो बड़ी हो जाओ*
.जब गुम सुम सी होती हूँ तो पास आके बैठती हो और पूरी दोस्त के जैसे चिढाना शुरू ।
कल की ही बात है। छत पर घूम रहे थे। टाइल्स की तरफ इशारा किया और बोली कि बचपन मे तुम इन पर *चीटी धप्प* खेलती थी न?
और लगड़ी टांग लेकर खुद खेलना शुरू ।
जब कभी कुछ पैसे हाथ मे रखूं या त्यौहार पर साड़ी लाके दूँतो कहती है बच्ची हो तुम, छोटी हो
ये सब की जरूरत नहीं
*मुझे सोचना नही होता जब मन चाहे बेठ जाती हूं मां की गोद मे
वो सर सहलाती है और कहती है 2 चोटी करने को
मैं बचपन के जैसे खुद को बेपरवाह, बेफिक्र महसूस करती हूं
( *जहां सब मुझे उम्र का एहसास दिला रहे है वहाँ मां मुझे बड़ा होने ही नही देती* )
पल्लवी
©PALLAVI MISHRA
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