PALLAVI MISHRA

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#Kathakaar

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*शीर्षक* : *वो जो मुझे कभी बड़ी नही होने देती* बड़ी हो गयी हूँ मैं अब । बहुत बड़ी और सबूत है मेरा खुद के पैरोँ पर खड़ा होना । अच्छा खासा कमा भी लेती हूं उतना की खुद का खर्चा पानी चल जाये । बना और पका भी लेती हूं उतना की खुद का पेट जींम जाये । भाईसाहब हमारे हिसाब से बड़ा हो जाना इसे ही कहते है किसी पर निर्भर ना होना । अब आप कहो कि कुछ ज्यादा ही गुरूर दिखा रहे है तो एक और सबूत है । हमारा आस पड़ोस, रिश्तेदार और ये समाज । एक मौका नही छोड़ते कहने का की उम्र हो गयी है शादी क्यूँ नही कर लेती । लड़कियों की सही उम्र पर शादी होनी चाहिए। बड़ी भी तो हो गयी हो । खैर ये नौकरी, दुनिया भीड़ भाड़ और आगे दौड़ने की होड़ में ज्यादा सोचने को कुछ बचा कहा है। पर हमें बहुत याद आते बचपन की बेफिक्री और बेपरवाही के दिन। जिसमे हम दुनिया के बंधन से परे थे। अभी तो एक शहर से दूसरे शहर को नापते है बस। बचपन मे हमारे गांव के हर गली मोहल्ले को हर दिन नापते थे, खेत से नहर, फिर नदी और पेड़ की लंबाई नापना। हसीन थे वो दिन। पर अब हर एक चीज़ एहसास दिलाती है बड़े होने का । बहुत बड़े हो गये है हम। *बस एक इंसान है जो हमे बड़ा नहीं होने देता* वो है *मां* जब मैं ऑफिस का काम करती हूं । और समझदारी की बात करूं तो कहती है *खुद में कोई समझदारी की चीज़ है अभी भी बच्ची हो तुम* जब में ट्रेनिंग दे रही होती हूं तो फिर से शुरू *खुद को कुछ आता है जो दूसरों को कुछ बताने चली हो* घर के काम और या रसोई , कितने भी अच्छे से करूँ *खामी निकाल ही देती है और कहती है अभी भी बच्ची हो , कभी तो बड़ी हो जाओ* .जब गुम सुम सी होती हूँ तो पास आके बैठती हो और पूरी दोस्त के जैसे चिढाना शुरू । कल की ही बात है। छत पर घूम रहे थे। टाइल्स की तरफ इशारा किया और बोली कि बचपन मे तुम इन पर *चीटी धप्प* खेलती थी न? और लगड़ी टांग लेकर खुद खेलना शुरू । जब कभी कुछ पैसे हाथ मे रखूं या त्यौहार पर साड़ी लाके दूँतो कहती है बच्ची हो तुम, छोटी हो ये सब की जरूरत नहीं *मुझे सोचना नही होता जब मन चाहे बेठ जाती हूं मां की गोद मे वो सर सहलाती है और कहती है 2 चोटी करने को मैं बचपन के जैसे खुद को बेपरवाह, बेफिक्र महसूस करती हूं ( *जहां सब मुझे उम्र का एहसास दिला रहे है वहाँ मां मुझे बड़ा होने ही नही देती* ) पल्लवी ©PALLAVI MISHRA

#Mother  *शीर्षक* : *वो जो मुझे कभी बड़ी नही होने देती* 

बड़ी हो गयी हूँ मैं अब । बहुत बड़ी और सबूत है मेरा खुद के पैरोँ पर खड़ा होना । अच्छा खासा कमा भी लेती हूं उतना की खुद का खर्चा पानी चल जाये । 
बना और पका भी लेती हूं उतना की खुद का पेट जींम जाये । भाईसाहब हमारे हिसाब से बड़ा हो जाना इसे ही कहते है किसी पर निर्भर ना होना ।
 अब आप कहो कि कुछ ज्यादा ही गुरूर दिखा रहे है तो एक और सबूत है ।

हमारा आस पड़ोस, रिश्तेदार और ये समाज । एक मौका नही छोड़ते कहने का की उम्र हो गयी है शादी क्यूँ नही कर लेती । 
लड़कियों की सही उम्र पर शादी होनी चाहिए। बड़ी भी तो हो गयी हो । 

खैर ये नौकरी, दुनिया भीड़ भाड़ और आगे दौड़ने की होड़ में ज्यादा सोचने को कुछ बचा कहा है। पर हमें बहुत याद आते बचपन की बेफिक्री और बेपरवाही के दिन।
 जिसमे हम दुनिया के बंधन से परे थे। 

अभी तो एक शहर से दूसरे शहर को नापते है बस। बचपन मे हमारे गांव के हर गली मोहल्ले को हर दिन नापते थे, खेत से नहर, फिर नदी और पेड़ की लंबाई नापना। 

हसीन थे वो दिन। पर अब हर एक चीज़ एहसास दिलाती है बड़े होने का । बहुत बड़े हो गये है हम। 

*बस एक इंसान है जो हमे बड़ा नहीं होने देता* वो है *मां*

जब मैं ऑफिस का काम करती हूं । और समझदारी की बात करूं तो कहती है 
*खुद में कोई समझदारी की चीज़ है अभी भी बच्ची हो तुम* 

जब में ट्रेनिंग दे रही होती हूं तो फिर से शुरू

*खुद को कुछ आता है जो दूसरों को कुछ बताने चली हो* 
घर के काम और या रसोई , कितने भी अच्छे से करूँ 
*खामी निकाल ही देती है और कहती है अभी भी बच्ची हो , कभी तो बड़ी हो जाओ* 
.जब गुम सुम सी होती हूँ तो पास आके बैठती हो और पूरी दोस्त के जैसे चिढाना शुरू । 

कल की ही बात है। छत पर घूम रहे थे। टाइल्स की तरफ इशारा किया और बोली कि बचपन मे तुम इन पर *चीटी धप्प* खेलती थी न?
 और लगड़ी टांग लेकर खुद खेलना शुरू । 
जब कभी कुछ पैसे हाथ मे रखूं या त्यौहार पर साड़ी लाके दूँतो कहती है बच्ची हो तुम, छोटी हो
ये सब की जरूरत नहीं

*मुझे सोचना नही होता जब मन चाहे बेठ जाती हूं मां की गोद मे 
वो सर सहलाती है और कहती है 2 चोटी करने को 
मैं बचपन के जैसे खुद को बेपरवाह, बेफिक्र महसूस करती हूं

( *जहां सब मुझे उम्र का एहसास दिला रहे है वहाँ मां मुझे बड़ा होने ही नही देती* )

पल्लवी

©PALLAVI MISHRA

#Mother'SDAYSPECIAL

7 Love

एक बीज हवा के साथ नदी के किनारे पर आ गया | नदी ने मेहरबानी की और थामा हाथ | जरुरत के मुताबिक पानी से सींचा कचरे को समेट खाद दी कड़ी धूप में शीतलता लहराई | बीज अब पौधे से पेड़ बन गया है | वो भी देना चाहता है बहुत कुछ वापसी में | उसने झुका लिया है खुद को नदी की तरफ फूल पत्ते फल तक किसी को नहीं आने देता बस गिरा देता है नदी में | नदी को वापसी समझ नहीं आती या तो बहुत कुछ तली में होता है या फिर तैरता रहता है खुद में कुछ घोल ही नहीं पाती | कुछ ऐसे ही है, भारतीय माँ बाप वो इतना त्याग कर चुके होते है बच्चों के त्याग न दिखाई देते है न समझ आते है | उन्हें लगता है की बस वही सींच कर सारी भूमिका निभा रहे है | पल्लवी मिश्रा ©PALLAVI MISHRA

 एक बीज हवा के साथ नदी के किनारे पर आ गया | 
नदी ने मेहरबानी की और थामा हाथ | 
जरुरत के मुताबिक  पानी से सींचा 
कचरे को समेट खाद दी 
कड़ी धूप में शीतलता लहराई | 

बीज अब पौधे से पेड़ बन गया है | 
वो भी देना चाहता है बहुत कुछ वापसी में | 
उसने झुका लिया है खुद को नदी की तरफ 
फूल पत्ते फल तक किसी को नहीं आने देता 
बस गिरा देता है नदी में | 

नदी को वापसी समझ नहीं आती 
या तो बहुत कुछ तली  में होता है 
या फिर तैरता रहता है 
खुद में कुछ घोल ही नहीं पाती | 

कुछ ऐसे ही है, भारतीय माँ  बाप 
वो इतना त्याग कर चुके होते है 
बच्चों के त्याग न दिखाई देते है न समझ आते है | 
उन्हें लगता है की बस वही सींच कर सारी भूमिका निभा रहे है | 


पल्लवी मिश्रा

©PALLAVI MISHRA

एक बीज हवा के साथ नदी के किनारे पर आ गया | नदी ने मेहरबानी की और थामा हाथ | जरुरत के मुताबिक पानी से सींचा कचरे को समेट खाद दी कड़ी धूप में शीतलता लहराई | बीज अब पौधे से पेड़ बन गया है | वो भी देना चाहता है बहुत कुछ वापसी में | उसने झुका लिया है खुद को नदी की तरफ फूल पत्ते फल तक किसी को नहीं आने देता बस गिरा देता है नदी में | नदी को वापसी समझ नहीं आती या तो बहुत कुछ तली में होता है या फिर तैरता रहता है खुद में कुछ घोल ही नहीं पाती | कुछ ऐसे ही है, भारतीय माँ बाप वो इतना त्याग कर चुके होते है बच्चों के त्याग न दिखाई देते है न समझ आते है | उन्हें लगता है की बस वही सींच कर सारी भूमिका निभा रहे है | पल्लवी मिश्रा ©PALLAVI MISHRA

9 Love

#waiting

#waiting

66 View

*मौत* काश के पिताजी को गर्म चाय बेहद पसंद है। रसोई में गैस पर तपती भगोनी , उबाल खाती चाय और सोफे तक का सफर कुछ वक्त की देरी ले ले तो वो भड़क जाते है ये कह कर कि चाय ठंडी हो गयी है । और फिर फरमान चाय फिर से गरम करने का । ऐसा अक्सर सर्दी में होता है। काश को रजाई में जाने की जल्दी होती है। और पिताजी की चाय पल में ठंडी। अधिकांशतः बिगड़ना होता है झल्लाते हुए और काश करती है कई सवाल। 1. फुर्र की तरह चाय कैसे ठंडी होती है भला ? 2. इतनी गरम चाय पीता कौन है ? आज भी कुछ ऐसा ही हुआ। मगर इस बार काश ने कुछ नही कहा । ना गुस्सा जताया। फिलहाल फुर्र की तरह उड़ते देख सकती है वो लोगों को । हवा की तरह आ रहीं है *मौत* की खबरें। ये अखबारों में छपे, समाचारों में दिखाए आकड़ें नहीं। ये कुछ अपने है । रिश्तेदार, दोस्त, परिवार 1. कुछ ने कोरोना में दम तोड़ दिया 2. कुछ नही लड़ पाए डर से और आत्महत्या चुनी 3 कुछ ठंडे पड़ गए है। उनसे सवाल तक नहीं कर पाई। 1. ऐसे कौन ठंडा होता है भला 2. ज़िन्दगी तो आग ही है ना सब्र कर लेते थोड़ा। लड़ लेते गर्म घूंट पी कर। ऐसा कहीं पढ़ा था। *मौत बहुत महंगी मंज़िल है जिस तक पहुंचने के लिये जिंदगी की जद्दोजहद से गुजरना होता है* मगर ये एक पल में मौतों की संख्या बता रही है मौतें सस्ती हो गयी है । जिदंगी बहुत महंगी। और ये सस्ती मौत यूं ही हर जगह मिल रही है बेची जा रही है और हाथ मे थमाई जा रहीं है। *काश को तो अब उसके पसंदीदा कोने की दीवार पर टंगी, उसी की फ़ोटो घूरती है डराती है।* कैसे देख पाएगी वो उन अपनों की तस्वीरें जो अब आखिरी निशानी बन चुकी है । पल्लवी ©PALLAVI MISHRA

#alone  *मौत* 

काश के पिताजी को गर्म चाय बेहद पसंद है। रसोई में गैस पर तपती भगोनी , 
उबाल खाती चाय और सोफे तक का सफर कुछ वक्त की देरी ले ले तो वो भड़क जाते है 
ये कह कर कि चाय ठंडी हो गयी है । और फिर फरमान चाय फिर से गरम करने का
। ऐसा अक्सर सर्दी में होता है। काश को रजाई में जाने की जल्दी होती है। और पिताजी की चाय पल में ठंडी। अधिकांशतः बिगड़ना होता है झल्लाते हुए और काश करती है कई सवाल। 

1. फुर्र की तरह चाय कैसे ठंडी होती है भला ? 
2. इतनी गरम चाय पीता कौन है ?

आज भी कुछ ऐसा ही हुआ। मगर इस बार काश ने कुछ नही कहा । ना गुस्सा जताया। 

फिलहाल फुर्र की तरह उड़ते देख सकती है वो लोगों को । हवा की तरह आ रहीं है *मौत* की खबरें। ये अखबारों में छपे, समाचारों में दिखाए आकड़ें नहीं।  ये कुछ अपने है । रिश्तेदार, दोस्त, परिवार

1. कुछ ने कोरोना में दम तोड़ दिया
2. कुछ नही लड़ पाए डर से और आत्महत्या चुनी 
3 कुछ ठंडे पड़ गए है। 

उनसे सवाल तक नहीं कर पाई। 
1. ऐसे कौन ठंडा होता है भला
2. ज़िन्दगी तो आग ही है ना सब्र कर लेते थोड़ा। लड़ लेते गर्म घूंट पी कर। 

ऐसा कहीं पढ़ा था। *मौत बहुत महंगी मंज़िल है जिस तक पहुंचने के लिये जिंदगी की जद्दोजहद से गुजरना होता है* 
मगर ये एक पल में मौतों की संख्या बता रही है मौतें सस्ती हो गयी है । जिदंगी बहुत महंगी। 

और ये सस्ती मौत यूं ही हर जगह मिल रही है बेची जा रही है और हाथ मे थमाई जा रहीं है। 

*काश को तो अब उसके पसंदीदा कोने की दीवार पर टंगी, उसी की फ़ोटो घूरती है डराती है।* 

कैसे देख पाएगी वो उन अपनों की तस्वीरें जो अब आखिरी निशानी बन चुकी है । 


पल्लवी

©PALLAVI MISHRA

#alone

8 Love

*वृत्त और चौकोर से परे बिन्दु* शिखा और विनीत बहुत ही अच्छे जिगरी यार थे। एक लंबे वक्त से साथ रहते हुए एक दूसरे को बखूबी समझ भी लेते थे। चाहे अनकहा समझना हो। मजाक करना हो या कुछ और। बिना किसी लेंगिक मतभेद के कह जाते थे हर बात वो भी सबसे पहले एक दुसरे को। एक दिन विनीत ने कहा शिखा तुम सच मे बहुत प्यारी हो । शिखा - (मजाकिया अंदाज में) तो फिर कर लें हम शादी ? विनीत - (झुंझलाते हुए) नहीं यार बिल्कुल नहीं। तुम दोस्त अच्छी हो, घूमती फिरती मजाक करती हुई । तुम वो शादी वाला आइटम नहीं । शिखा को बचपन की रेखागणित की क्लास जैसा महसूस हुआ । जिसमें वो सभी के जैसे वृत्त और चोकोर लकीरों के सवाल नहीं समझ पाती थी । और वो चाहती भी नहीं थी सबके जैसे उन्हें समझना । ना वो चाहती थी चोकोर लकीरों के जैसे रसोई के चार दिवारी में सिमटना ना वो चाहती थी वृत्त की परिधि खींच सरकारी नौकरी और घर के चक्कर में घूमना। जहाँ रसोई सर्वोपरि हो। वो चाहती थी बिंदु बना कर सरपट दौड़ना औऱ उड़ना । पैरों से लकीरें खींचना। शायद ऐसी लड़कियां जिन्हें ठहरा दिया जाता है। समाज के बाहर की । पल्लवी ©PALLAVI MISHRA

#Smile  *वृत्त और चौकोर से परे बिन्दु*



शिखा और विनीत बहुत ही अच्छे जिगरी यार थे।  
एक लंबे वक्त से साथ रहते हुए एक दूसरे को बखूबी समझ भी लेते थे। चाहे अनकहा समझना हो।  
मजाक करना हो या कुछ और। बिना किसी लेंगिक मतभेद के कह जाते थे 
हर बात वो भी सबसे पहले एक दुसरे को। 

एक दिन विनीत ने कहा शिखा तुम सच मे बहुत प्यारी हो । 
शिखा - (मजाकिया अंदाज में) तो फिर कर लें हम शादी ? 
विनीत - (झुंझलाते हुए) नहीं यार बिल्कुल नहीं। तुम दोस्त अच्छी हो, घूमती फिरती मजाक करती हुई । 
तुम वो शादी वाला आइटम नहीं । 


शिखा को बचपन की रेखागणित की क्लास जैसा महसूस हुआ । 
जिसमें वो सभी के जैसे वृत्त और चोकोर लकीरों के सवाल नहीं समझ पाती थी । 

और वो चाहती भी नहीं थी सबके जैसे उन्हें समझना । 

ना वो चाहती थी चोकोर लकीरों के जैसे रसोई के चार दिवारी में सिमटना

ना वो चाहती थी वृत्त की परिधि खींच सरकारी नौकरी और घर के चक्कर में घूमना। जहाँ रसोई सर्वोपरि हो। 


वो चाहती थी बिंदु बना कर सरपट दौड़ना औऱ उड़ना । पैरों से लकीरें खींचना। 

शायद ऐसी लड़कियां जिन्हें ठहरा दिया जाता है। समाज के बाहर की । 


पल्लवी

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#Smile

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