Mohd Arsh malik

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pre medical aspirant New Delhi

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#samandar  Tumhe kya maalom!
kiyu khudkushi ki chaah rakhne wale khudkushi nahi karte !
Tumhe kya maalom !
zindegi ki chaah rakhne wale log ,
haadso mein!
 kiyu apaahiz(disable)  hogye;

©Mohd Arsh malik

#samandar

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chath (tarace) pe kamra hai mera ! kamra bhi kone wala !! kaam asaani se hojata hai , rone wala ! ©Mohd Arsh malik

#WINDOWQUOTE  chath (tarace) pe kamra
hai mera !

kamra bhi kone wala !! 

kaam asaani se hojata hai ,
rone wala !

©Mohd Arsh malik

#WINDOWQUOTE poet UMAIR NAJMI

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#breeze

#breeze

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ये अमल हम में है बे-इल्म परिंदों में नहीं हम जो इंसानों की तहज़ीब लिए फिरते हैं हम सा वहशी कोई जंगल के दरिंदों में नहीं इक बुझी रूह लुटे जिस्म के ढाँचे में लिए सोचती हूँ मैं कहाँ जा के मुक़द्दर फोड़ूँ मैं न ज़िंदा हूँ कि मरने का सहारा ढूँडूँ और न मुर्दा हूँ कि जीने के ग़मों से छूटूँ कौन बतलाएगा मुझ को किसे जा कर पूछूँ ज़िंदगी क़हर के साँचों में ढलेगी कब तक कब तलक आँख न खोलेगा ज़माने का ज़मीर ज़ुल्म और जब्र की ये रीत चलेगी कब तक ©Mohd Arsh malik

#womenday  ये अमल हम में है बे-इल्म परिंदों में नहीं 

हम जो इंसानों की तहज़ीब लिए फिरते हैं 

हम सा वहशी कोई जंगल के दरिंदों में नहीं 

इक बुझी रूह लुटे जिस्म के ढाँचे में लिए 

सोचती हूँ मैं कहाँ जा के मुक़द्दर फोड़ूँ 

मैं न ज़िंदा हूँ कि मरने का सहारा ढूँडूँ 

और न मुर्दा हूँ कि जीने के ग़मों से छूटूँ 

कौन बतलाएगा मुझ को किसे जा कर पूछूँ 

ज़िंदगी क़हर के साँचों में ढलेगी कब तक 

कब तलक आँख न खोलेगा ज़माने का ज़मीर 

ज़ुल्म और जब्र की ये रीत चलेगी कब तक

©Mohd Arsh malik

poet sahir ludhyanwi #womenday

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लोग औरत को फ़क़त जिस्म समझ लेते हैं रूह भी होती है उस में ये कहाँ सोचते हैं रूह क्या होती है इस से उन्हें मतलब ही नहीं वो तो बस तन के तक़ाज़ों का कहा मानते हैं रूह मर जाते हैं तो ये जिस्म है चलती हुई लाश इस हक़ीक़त को न समझते हैं न पहचानते हैं कितनी सदियों से ये वहशत का चलन जारी है कितनी सदियों से है क़ाएम ये गुनाहों का रिवाज लोग औरत की हर इक चीख़ को नग़्मा समझे वो क़बीलों का ज़माना हो कि शहरों का रिवाज जब्र से नस्ल बढ़े ज़ुल्म से तन मेल करें ये अमल हम में है बे-इल्म परिंदों में नहीं ©Mohd Arsh malik

#internationalwomenday  लोग औरत को फ़क़त जिस्म समझ लेते हैं 

रूह भी होती है उस में ये कहाँ सोचते हैं 

रूह क्या होती है इस से उन्हें मतलब ही नहीं 

वो तो बस तन के तक़ाज़ों का कहा मानते हैं 

रूह मर जाते हैं तो ये जिस्म है चलती हुई लाश 

इस हक़ीक़त को न समझते हैं न पहचानते हैं 

कितनी सदियों से ये वहशत का चलन जारी है 

कितनी सदियों से है क़ाएम ये गुनाहों का रिवाज 

लोग औरत की हर इक चीख़ को नग़्मा समझे 

वो क़बीलों का ज़माना हो कि शहरों का रिवाज 

जब्र से नस्ल बढ़े ज़ुल्म से तन मेल करें 

ये अमल हम में है बे-इल्म परिंदों में नहीं

©Mohd Arsh malik

poet sahir ludhyanwi #internationalwomenday

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मेहंदी लगाए सूरज जब शाम की दुल्हन को सुर्ख़ी लिए सुनहरी हर फूल की क़बा हो रातों को चलने वाले रह जाएँ थक के जिस दम उम्मीद उन की मेरा टूटा हुआ दिया हो बिजली चमक के उन को कुटिया मिरी दिखा दे जब आसमाँ पे हर सू बादल घिरा हुआ हो पिछले पहर की कोयल वो सुब्ह की मोअज़्ज़िन मैं उस का हम-नवा हूँ वो मेरी हम-नवा हो कानों पे हो न मेरे दैर ओ हरम का एहसाँ रौज़न ही झोंपड़ी का मुझ को सहर-नुमा हो फूलों को आए जिस दम शबनम वज़ू कराने रोना मिरा वज़ू हो नाला मिरी दुआ हो इस ख़ामुशी में जाएँ इतने बुलंद नाले तारों के क़ाफ़िले को मेरी सदा दिरा हो हर दर्दमंद दिल को रोना मिरा रुला दे बेहोश जो पड़े हैं शायद उन्हें जगा दे ©Mohd Arsh malik

#Nature  मेहंदी लगाए सूरज जब शाम की दुल्हन को 

सुर्ख़ी लिए सुनहरी हर फूल की क़बा हो 

रातों को चलने वाले रह जाएँ थक के जिस दम 

उम्मीद उन की मेरा टूटा हुआ दिया हो 

बिजली चमक के उन को कुटिया मिरी दिखा दे 

जब आसमाँ पे हर सू बादल घिरा हुआ हो 

पिछले पहर की कोयल वो सुब्ह की मोअज़्ज़िन 

मैं उस का हम-नवा हूँ वो मेरी हम-नवा हो 

कानों पे हो न मेरे दैर ओ हरम का एहसाँ 

रौज़न ही झोंपड़ी का मुझ को सहर-नुमा हो 

फूलों को आए जिस दम शबनम वज़ू कराने 

रोना मिरा वज़ू हो नाला मिरी दुआ हो 

इस ख़ामुशी में जाएँ इतने बुलंद नाले 

तारों के क़ाफ़िले को मेरी सदा दिरा हो 

हर दर्दमंद दिल को रोना मिरा रुला दे 

बेहोश जो पड़े हैं शायद उन्हें जगा दे

©Mohd Arsh malik

#Nature poet Allama Iqbal

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