मेरी खामोशियाँ ही मुझसे ये सवाल करतीं हैं।
क्यूँ खामोश हूँ मैं इतना इसका हिसाब करतीं हैं।
मेरी उलझनों को समझने की कोशिश नहीं करतीं।
अक्सर ही बातें ये मुझसे बेमिसाल करतीं हैं।
बैठा रहूँ खामोश कहीं तन्हाइयों मे जो मैं।
तो ख्यालों में मुझे चंद पल के लिए खुशहाल करतीं हैं।
जब तक तन्हाइयों मे हूँ मैं खुश नजर आता हूँ।
जब ख्वाब टूटता है तो पता चलता है कि।
मेरी खामोशियाँ भी मुझसे मजाक करतीं हैं।
बन गईं हैं मेरी मित्र ये खामोशियाँ मेरी।
मेरी खामोशियाँ मुझसे बहुत प्यार करतीं हैं।
इन खामोशियों ने ही तो हृदय से अन्धेरे का डर निकाला है।
क्योंकि अन्धेरो मे भी मेरी खामोशियाँ मुझसे बात करतीं हैं।
जिन्दगी की बहुत सारी उलझनों मे उलझा हुआ हूँ मैं।
मेरी खामोशियाँ ही मुझे उन उलझनों से बाहर निकाल करतीं हैं।
मेरी तन्हाइयों में सबसे अच्छी साथी हैं ये खामोशियाँ मेरी।
पर कभी-कभी बातें ये खामोशियाँ भी बेकार करतीं हैं।
जिस कार्य को पूर्ण करना असम्भव हो जिन्दगी में।
उसके भी पूर्ण होने का स्वप्न दिखाकर।
मेरी खामोशियाँ मुझे परेशान करतीं हैं।
क्यूँ खामोश हूँ मैं इतना इसका हिसाब करतीं हैं।
मेरी खामोशियाँ ही मुझसे ये सवाल करतीं हैं।
अजय कुमार द्विवेदी ''अजय''
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