English
संतोष
27 View
37 View
शीत ऋतु दिवस की निशा जो छोटी थी अब बडी़ होकर इठलाती हैं ढ़ल जाता है भानु शिघ्र और संध्या खूब इतराती हैं तपता सुरज सुकुन देता हैं और हवाये प्रहार बराबर हैं पसीनो की बूंदे बदन पर थी अब ओस की बूंदे धरा पर हैं सब छिप रहे थे जो छाये में अब धूप उन्हें खूब भाये हैं जो जल शीतल लगता था वह कांटे सा अब चुभता हैं जो भिनसार अंशु लाता था वह अंधकार में ही रहता हैं स्वयं रवि देर से जगता हैं और सबको भी सुलाता हैं वातावरण बनकर ठिठुरन कोहरे से सज जाता हैं लिपटकर चादर में तब जीवन चलता जाता हैं जीवन चलता जाता हैं ©संतोष
5 Love
117 View
दिनांत के विधान का सूर्यास्त के सम्मान का विहान के विश्वास का दिवस के न्यास का तमस के विनाश का उत्कर्ष के प्रकाश का हो तन्मय भक्तिभाव में मन के ठहराव में हो निर्जला जलधाम में रख आस्था अंशुमान में संग श्रद्धा व अराधना महाव्रत में उपासना हैं अनन्य पर्व अर्घ्य का आदित्य के सौजन्य का . ©संतोष
6 Love
दिनांत के विधान का सूर्यास्त के सम्मान का विहान के विश्वास का दिवस के न्यास का तमस के विनाश का उत्कर्ष के प्रकाश का हो तन्मय भक्तिभाव में मन के ठहराव में हो निर्जला जलधाम में रख आस्था अंशुमान में संग श्रद्धा व अराधना महाव्रत में उपासना हैं अनन्य पर्व अर्घ्य का आदित्य के सौजन्य का ©संतोष
8 Love
You are not a Member of Nojoto with email
or already have account Login Here
Will restore all stories present before deactivation. It may take sometime to restore your stories.
Continue with Social Accounts
Download App
Stories | Poetry | Experiences | Opinion
कहानियाँ | कविताएँ | अनुभव | राय
Continue with
Download the Nojoto Appto write & record your stories!
Continue with Social Accounts
Facebook Googleor already have account Login Here