मेरे दरीचे के भीतर झांक कर हाल चाल जान लेते हो
ज़नाब फिक्रमंद है ग़र आप तो दहलीज़ के पार क्यों न आते हो।।
इन छोटी छोटी हरक़तों से जाने क्या ख़ुशी मिलती है आपको
ज़बाब देने मेरे काशाने में मुझसे रूबरू हो हमे क्यों न बताते हो।।
माना कि तेरे दिल के जज़्बात हमने समझे नही थे मग़र
कोशिशें होगी समझने अबकी बार ,क्यों न आकर हमे समझाते हो।।
आहट तुम समझो न समझो, गलती न तेरी न मेरी थी मग़र
तुम समझतीं रही सज़ा सिर्फ़ तुम्हे मिली है ये ग़लत कहते हो।।
(दरीचे-खिड़की)(काशाने -घर)
©अभिषेक क्षितिज
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