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New umashankar joshi poems Status, Photo, Video

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#Motivational

sourav Joshi vs

99 View

#poetryunplugged #Motivational #poems

#poetryunplugged #poems #Poetry

108 View

#matangiupadhyay #Motivational #love_shayari #Motivation #Hindi #poems  ❤ ❤ ❤ ❤ ❤ ❤

मेरे ख्वाबों की उड़ान 😊 #matangiupadhyay #Nojoto #love_shayari #Hindi #Motivation #Life #poems

162 View

#कविता #good_night #poems  White उसके घर में सजे हुए हैं कई कई ईनाम 
लेकिन उसकी जीभ पर हैं तलवों के निशान।

-अशोक जमनानी

©साहित्य संजीवनी

#good_night #Poetry #poems

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आपकी अपकीर्ति हेतु षड्यंत्र आपके अपनें हीं रचते हैं । ©~आचार्य परम्‌~

#मोटिवेशनल  आपकी अपकीर्ति हेतु षड्यंत्र आपके अपनें हीं रचते हैं ।

©~आचार्य परम्‌~
#कविता #Joshi  White सदियों की ठंडी-बुझी राख सुगबुगा उठी,
मिट्टी सोने का ताज पहन इठलाती है।
दो राह, समय के रथ का घर्घर-नाद सुनो,
सिंहासन खाली करो कि जनता आती है।

जनता? हाँ, मिट्टी की अबोध मूरतें वही,
जाड़े-पाले की कसक सदा सहनेवाली,
जब अंग-अंग में लगे सांप हो चूस रहे,
तब भी न कभी मुँह खोल दर्द कहनेवाली।
जनता? हाँ, वही कृषि-प्रधान गँवार देहात,
जहाँ जाति-जाति के नाम पर होते हैं घात,
जनता? हाँ, वही, अनपढ़, गुणहीन, गरिब गाँव,
जिसके पास पशु के सिवा नहीं कोई ठाँव।

सदियों से सहमी हुई बुतों की उस भीड़ पर
तरस आज आता मुझे, भरी दोपहरी में
जो नंगे पाँव चल रही है, तप्त सड़क पर,
अब भी जब कि उसकी लाश ठंडी हो चली,
ठहरी नहीं तो उसी निर्दय अंगारों पर,
जिसकी छाती में धधक रही है, आग सुलगती है,
जो अम्बारों से गुज़र रही है, विषधर साँप-सी।

सिंहासन खाली करो कि जनता आती

©आगाज़
#Motivational

sourav Joshi vs

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#poetryunplugged #Motivational #poems

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#matangiupadhyay #Motivational #love_shayari #Motivation #Hindi #poems  ❤ ❤ ❤ ❤ ❤ ❤

मेरे ख्वाबों की उड़ान 😊 #matangiupadhyay #Nojoto #love_shayari #Hindi #Motivation #Life #poems

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#कविता #good_night #poems  White उसके घर में सजे हुए हैं कई कई ईनाम 
लेकिन उसकी जीभ पर हैं तलवों के निशान।

-अशोक जमनानी

©साहित्य संजीवनी

#good_night #Poetry #poems

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आपकी अपकीर्ति हेतु षड्यंत्र आपके अपनें हीं रचते हैं । ©~आचार्य परम्‌~

#मोटिवेशनल  आपकी अपकीर्ति हेतु षड्यंत्र आपके अपनें हीं रचते हैं ।

©~आचार्य परम्‌~
#कविता #Joshi  White सदियों की ठंडी-बुझी राख सुगबुगा उठी,
मिट्टी सोने का ताज पहन इठलाती है।
दो राह, समय के रथ का घर्घर-नाद सुनो,
सिंहासन खाली करो कि जनता आती है।

जनता? हाँ, मिट्टी की अबोध मूरतें वही,
जाड़े-पाले की कसक सदा सहनेवाली,
जब अंग-अंग में लगे सांप हो चूस रहे,
तब भी न कभी मुँह खोल दर्द कहनेवाली।
जनता? हाँ, वही कृषि-प्रधान गँवार देहात,
जहाँ जाति-जाति के नाम पर होते हैं घात,
जनता? हाँ, वही, अनपढ़, गुणहीन, गरिब गाँव,
जिसके पास पशु के सिवा नहीं कोई ठाँव।

सदियों से सहमी हुई बुतों की उस भीड़ पर
तरस आज आता मुझे, भरी दोपहरी में
जो नंगे पाँव चल रही है, तप्त सड़क पर,
अब भी जब कि उसकी लाश ठंडी हो चली,
ठहरी नहीं तो उसी निर्दय अंगारों पर,
जिसकी छाती में धधक रही है, आग सुलगती है,
जो अम्बारों से गुज़र रही है, विषधर साँप-सी।

सिंहासन खाली करो कि जनता आती

©आगाज़
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