White महफ़िल में भी मिली अकेली तन्हाई,
गम के पन्ने पलट रही थी रुस्वाई,
गिरा ताड़ से अटका किसी खजूरे पर,
बेचारे ने कैसी है किस्मत पाई,
बैठ गया खालीपन उसके जाने से,
कभी नहीं हो सकती जिसकी भरपाई,
बिन बरसे ही सावन घर को लौट गया,
मन के अंदर ख़्वाहिश लेती अंगड़ाई,
दिन ढ़लने को आतुर मेरे आंगन का,
लगी छुड़ाने पीछा अपनी परछाई,
आम आदमी की थाली से गायब है,
कोर-कसर पूरा कर देती महंगाई,
पैसों से तक़दीर की टोपी मिल जाती,
दूर सिसकती बैठी मिलती तरुणाई,
दिल की बात सुनाऊँ मैं किससे गुंजन,
आहत करती मन को यादें दुखदाई,
---शशि भूषण मिश्र 'गुंजन'
समस्तीपुर बिहार
©Shashi Bhushan Mishra
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