"हमारी नदी बनास"
बढ़ रही है,गर्मी नदी में छलांग मार दो
आयेगा आनंद साथ दोस्त भी उतार लो
ये कोरी नदी नही,इससे जुड़ा नाता कोई
इस नदी को मां के जैसे ही स्वीकार लो
इसमें नहाए-धोए,इसका हमने पानी पिया,
इसको स्वार्थ के लिए,खूब प्रदूषित किया
फिर भी इस बनास मां ने उफ्फ न किया
जगह-जगह पर इसका तन छलनी किया
गर न होती बनास,रह जाता राजथान प्यासा
इसे कहे,वन आस बहे वर्षभर न कि चौमासा
हमारी नदी बनास,कृषि साथ बुझाती प्यास
गर यह भरे,किसानों के लिये राहत की सांस
नही तो आएगी,एकदिन एक ऐसी सुनामी
डूब जाओगे उसमें कई लोग नामी-गिरामी
वक्त रहते तुम-सब अपनी गलती सुधार लो
नदी खोदना बंद करो,इसे मां सदृश्य प्यार दो
बनास मां को स्वच्छता का ऐसा संसार दो
देखे,हर कोई इसमें चेहरा,ऐसा चमत्कार दो
मानव की सारी सभ्यता,नदी किनारे बसी
फिर स्वार्थ के लिये क्यों करी,नदियां गन्दी
सुधर जाओ,न तो एकदिन सूख जायेगी नदी
फिर तुम,प्यास के लिये भटकोगे 21वीं सदी
वक्त रहते,सभी नदियों की सार सम्भाल लो
इन्हें मां समझो,खुद को पुत्र सा व्यवहार दो
दिल से विजय
विजय कुमार पाराशर-"साखी"
©Vijay Kumar उपनाम-"साखी"
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