शीर्षक-"संवेदना"
पूछ रहा यह जीवन तुझसे
तेरी कहां गई "संवेदना",
"धरा" यहीं है ,लोग वही हैं
देह वही है ,नेह नहीं है
क्यूँ मीट रही है भावना !
दी "जिन्दगी" जिसने तुझको
उसका ना परवाह किया,
मंदिर-मंदिर घूम रहा तू
"उसको" रोता छोड़ दिया
क्या यही है तेरी आराधना!
तुझे खिलाने की खातिर
कई कई दिन जिसने उपवास किया,
तू खोया है रंगीन नजारों में
"उन्हें" घर में ही वनवास दिया
क्या तुम्हीं थे उनकी कल्पना!
फर्क नहीं पड़ता है तुझको
जब "ममता" छुपकर रोती है,
देख तेरी इस निष्ठुरता को
कुदरत की आह निकलती है
क्या होती नहीं तुझे वेदना!
रिश्तों से "रस" सूख गया
जीवन बन गई है "बेज़ान" सी,
व्यर्थ हुये सब लहू के नाते
जो लगती है अंजान सी
क्या यही थी उनकी कामना!
विस्मित हैं भगवान भी अब
इंसान तेरी करतूत से,
जन्म का मोल चुनेगा कैसे
तुझ जैसे सपूत से
क्या दुखती नहीं तेरी आत्मा!
कहां गई संवेदना??
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©Ankur Mishra
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