शीर्षक- हमारी सज़ा 
असहनीय यह गर्मी स्वाभाविक या क
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शीर्षक- हमारी सज़ा असहनीय यह गर्मी स्वाभाविक या कोई खता हमारी है, यह सोचने का भी समय और भुगतने की भी बारी है, जो पूर्व में किए हैं असामाजिक कृत्य हमने, निसंदेह यह उन्हीं की सज़ा हमारी है। कट रहे वृक्ष जो प्रतिदिन धारा भी तप रही है, पिघल रहे हिमनद अम्बर से अग्नि बरस रही है, क्या कु कृत्य कर रहा है हे मानव तू, गलती तेरी सजा मां प्रकृति भुगत रही है। जल रहे हैं जंगल पकी फसल जल रही है, देख हालात ऐसे किसान की मेहनत खल रही है, देख स्तब्ध हूं मैं इस दुर्दशा पर इंसान की, निकली थी जो हिमालय से अब अदृश्य चल रही है। हो रहा कैसा उलटफेर ऋतुओं में सब सोच रहे हैं, कभी शीत में तो कभी बसंत में सूर्य को कोस रहे है, कभी भूकम्प कभी तूफान कभी सुनामी को तैयार हैं, ऋतू बरसात की आने से पहले बाढ़ को सब पोंछ रहे हैं । सूख रहे जल स्रोत सब नदिया भी दम तोड़ रही, इस बदहाली की हालत में नव पल्लव भी जग छोड़ रही, कैसी है यह दुर्दशा और इसका क्या समाधान है, अपराधी यह दुनिया सारी दंडवत हाथों को जोड़ रही। ललित भट्ट ✍️🙏 ©Lalit Bhatt

#कविता  शीर्षक- हमारी सज़ा 
असहनीय यह गर्मी स्वाभाविक या कोई खता हमारी है,
यह सोचने का भी समय और भुगतने की भी बारी है,
जो पूर्व में किए हैं असामाजिक कृत्य हमने,
निसंदेह यह उन्हीं की सज़ा हमारी है।

कट रहे वृक्ष जो प्रतिदिन धारा भी तप रही है,
पिघल रहे हिमनद अम्बर से अग्नि बरस रही है,
क्या कु कृत्य कर रहा है हे मानव तू,
गलती तेरी सजा मां प्रकृति भुगत रही है।

जल रहे हैं जंगल पकी फसल जल रही है,
देख हालात ऐसे किसान की मेहनत खल रही है,
देख स्तब्ध हूं मैं इस दुर्दशा पर इंसान की,
निकली थी जो हिमालय से अब अदृश्य चल रही है।

हो रहा कैसा उलटफेर ऋतुओं में सब सोच रहे हैं,
कभी शीत में तो कभी बसंत में सूर्य को कोस रहे है,
कभी भूकम्प कभी तूफान कभी सुनामी को तैयार हैं,
ऋतू बरसात की आने से पहले बाढ़ को सब पोंछ रहे हैं ।

सूख रहे जल स्रोत सब नदिया भी दम तोड़ रही,
इस बदहाली की हालत में नव पल्लव भी जग छोड़ रही,
कैसी है यह दुर्दशा और इसका क्या समाधान है,
अपराधी यह दुनिया सारी दंडवत हाथों को जोड़ रही।
                                     ललित भट्ट ✍️🙏

©Lalit Bhatt

शीर्षक- हमारी सज़ा असहनीय यह गर्मी स्वाभाविक या कोई खता हमारी है, यह सोचने का भी समय और भुगतने की भी बारी है, जो पूर्व में किए हैं असामाजिक कृत्य हमने, निसंदेह यह उन्हीं की सज़ा हमारी है। कट रहे वृक्ष जो प्रतिदिन धारा भी तप रही है, पिघल रहे हिमनद अम्बर से अग्नि बरस रही है, क्या कु कृत्य कर रहा है हे मानव तू, गलती तेरी सजा मां प्रकृति भुगत रही है। जल रहे हैं जंगल पकी फसल जल रही है, देख हालात ऐसे किसान की मेहनत खल रही है, देख स्तब्ध हूं मैं इस दुर्दशा पर इंसान की, निकली थी जो हिमालय से अब अदृश्य चल रही है। हो रहा कैसा उलटफेर ऋतुओं में सब सोच रहे हैं, कभी शीत में तो कभी बसंत में सूर्य को कोस रहे है, कभी भूकम्प कभी तूफान कभी सुनामी को तैयार हैं, ऋतू बरसात की आने से पहले बाढ़ को सब पोंछ रहे हैं । सूख रहे जल स्रोत सब नदिया भी दम तोड़ रही, इस बदहाली की हालत में नव पल्लव भी जग छोड़ रही, कैसी है यह दुर्दशा और इसका क्या समाधान है, अपराधी यह दुनिया सारी दंडवत हाथों को जोड़ रही। ललित भट्ट ✍️🙏 ©Lalit Bhatt

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