Lalit Bhatt

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दोस्ती😍 प्यार से बढ़ कर है, पर दोस्त से नहीं। कहीं मेरे इजहार से वह दूर ना हो जाए, इससे तो अच्छा वह मेरी दोस्त ही सही।😍😘

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#शायरी

अब तो प्यार कर रही हो ना,

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#शायरी #LoveOnline

#LoveOnline इश्क छुपकर नहीं सरेआम किया हमने🥰❤️🌹

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शीर्षक - एक दिन का योग 21 जून है दिवस आज कर रहा है विश्व योग, एक दिन में ही प्रकृति संघ बनाना चाहें संयोग, थोड़ा संशयी और अचंभित हूं मैं, एक दिन के ही योग से कैसे भागेंगे रोग।। नित्य करें जो हम योग व शारीरिक कर्म, स्वत: ही दूर हो जाएंगे हमारे सारे मर्म, दौड़ भाग और ध्यान ही तो योग है, प्रतिदिन करें हम योग तो खिल जाता हमारा चर्म।। एक दिन के हम योगी सारे, वर्ष भर योग से वारे-न्यारे, तभी तो रोग से भरा तन हमारा, वर्ष भर फिरते मारे-मारे।। ललित भट्ट ✍️🙏 ©Lalit Bhatt

#कविता #YogaDay2022  शीर्षक - एक दिन का योग
21 जून है दिवस आज कर रहा है विश्व योग,
एक दिन में ही प्रकृति संघ बनाना चाहें संयोग,
थोड़ा संशयी और अचंभित हूं मैं,
एक दिन के ही योग से कैसे भागेंगे रोग।।

नित्य करें जो हम योग व शारीरिक कर्म,
स्वत: ही दूर हो जाएंगे हमारे सारे मर्म,
दौड़ भाग और ध्यान ही तो योग है,
प्रतिदिन करें हम योग तो खिल जाता हमारा चर्म।।

एक दिन के हम योगी सारे,
वर्ष भर योग से वारे-न्यारे,
तभी तो रोग से भरा तन हमारा,
वर्ष भर फिरते मारे-मारे।।
            ललित भट्ट ✍️🙏

©Lalit Bhatt

शीर्षक -मेरे पापा का वर्णन करूं ऐसे कोई शब्द नहीं मेरे पास, कितना ही वो डाटें-पीटें फिर भी नहीं कोई उनसे खास, पापा के पास होने से ही, मनोबल भरपूर बढ़ता है, राह की हर मुश्किल करेंगे दूर, होता है उन पर विश्वास।। कई बार याद आती, पर आंखों से आंसू नहीं बहते, आपकी रोक-टोक और प्रेम संग, आप सदैव दिल में रहते, आप नहीं है अपने बच्चों के बीच, कभी नहीं होता विश्वास, आपकी कोई सीख प्रतिदिन आती याद, जो घर में हैं कहते।। हां निष्कपट थे आप कड़वे बोल भी हंसते-हंसते कह देते, आए जो मुसीबत कभी घर पे तो हंसते-हंसते सह लेते, घर की छोटी सी खुशियों को आप बड़ा बनाकर जी जाते, देख मनोबल आपका दुख सारे उल्टे पांव ही बह जाते।। पापा आपका एहसास आज भी एक शीतल सी भोर है, बुरी संगत से बचा हमें सदैव लगाया सफलता की ओर है, बस आशीष आपका रहे हम सब पर आजीवन, आप पर तब भी हमारा जोर था और अभी भी हमारा जोर है।। ललित भट्ट ✍️🙏 ©Lalit Bhatt

#कविता  शीर्षक -मेरे पापा
 का वर्णन करूं ऐसे कोई शब्द नहीं मेरे पास,
कितना ही वो डाटें-पीटें फिर भी नहीं कोई उनसे खास,
पापा के पास होने से ही, मनोबल भरपूर बढ़ता है,
राह की हर मुश्किल करेंगे दूर, होता है उन पर विश्वास।। 

कई बार याद आती, पर आंखों से आंसू नहीं बहते,
आपकी रोक-टोक और प्रेम संग, आप सदैव दिल में रहते,
आप नहीं है अपने बच्चों के बीच, कभी नहीं होता विश्वास,
आपकी कोई सीख प्रतिदिन आती याद, जो घर में हैं कहते।।

हां निष्कपट थे आप कड़वे बोल भी हंसते-हंसते कह देते,
आए जो मुसीबत कभी घर पे तो हंसते-हंसते सह लेते,
घर की छोटी सी खुशियों को आप बड़ा बनाकर जी जाते,
देख मनोबल आपका दुख सारे उल्टे पांव ही बह जाते।।

पापा आपका एहसास आज भी एक शीतल सी भोर है,
बुरी संगत से बचा हमें सदैव लगाया सफलता की ओर है,
बस आशीष आपका रहे हम सब पर आजीवन,
आप पर तब भी हमारा जोर था और अभी भी हमारा जोर है।।
               ललित भट्ट ✍️🙏

©Lalit Bhatt

पितृ दिवस की हार्दिक शुभकामनाएं 🥰🙏

9 Love

#WorldEnvironmentDay शीर्षक-हमारा पर्यावरण हमारी सज़ा असहनीय यह गर्मी स्वाभाविक या कोई खता हमारी है, यह सोचने का भी समय और भुगतने की भी बारी है, जो पूर्व में किए हैं असामाजिक कृत्य हमने, निसंदेह यह उन्हीं की सज़ा हमारी है। कट रहे वृक्ष जो प्रतिदिन धारा भी तप रही है, पिघल रहे हिमनद अम्बर से अग्नि बरस रही है, क्या कु कृत्य कर रहा है हे मानव तू, गलती तेरी सजा मां प्रकृति भुगत रही है। जल रहे हैं जंगल पकी फसल जल रही है, देख हालात ऐसे किसान की मेहनत खल रही है, देख स्तब्ध हूं मैं इस दुर्दशा पर इंसान की, निकली थी जो हिमालय से अब अदृश्य चल रही है। हो रहा कैसा उलटफेर ऋतुओं में सब सोच रहे हैं, कभी शीत में तो कभी बसंत में सूर्य को कोस रहे है, कभी भूकम्प कभी तूफान कभी सुनामी को तैयार हैं, ऋतू बरसात की आने से पहले बाढ़ को सब पोंछ रहे हैं । सूख रहे जल स्रोत सब नदिया भी दम तोड़ रही, इस बदहाली की हालत में नव पल्लव भी जग छोड़ रही, कैसी है यह दुर्दशा और इसका क्या समाधान है, अपराधी यह दुनिया सारी दंडवत हो हाथों को जोड़ रही। ललित भट्ट ✍️🙏 ©Lalit Bhatt

#WorldEnvironmentDay #कविता  #WorldEnvironmentDay शीर्षक-हमारा पर्यावरण हमारी सज़ा 

असहनीय यह गर्मी स्वाभाविक या कोई खता हमारी है,
यह सोचने का भी समय और भुगतने की भी बारी है,
जो पूर्व में किए हैं असामाजिक कृत्य हमने,
निसंदेह यह उन्हीं की सज़ा हमारी है।

कट रहे वृक्ष जो प्रतिदिन धारा भी तप रही है,
पिघल रहे हिमनद अम्बर से अग्नि बरस रही है,
क्या कु कृत्य कर रहा है हे मानव तू,
गलती तेरी सजा मां प्रकृति भुगत रही है।

जल रहे हैं जंगल पकी फसल जल रही है,
देख हालात ऐसे किसान की मेहनत खल रही है,
देख स्तब्ध हूं मैं इस दुर्दशा पर इंसान की,
निकली थी जो हिमालय से अब अदृश्य चल रही है।

हो रहा कैसा उलटफेर ऋतुओं में सब सोच रहे हैं,
कभी शीत में तो कभी बसंत में सूर्य को कोस रहे है,
कभी भूकम्प कभी तूफान कभी सुनामी को तैयार हैं,
ऋतू बरसात की आने से पहले बाढ़ को सब पोंछ रहे हैं ।

सूख रहे जल स्रोत सब नदिया भी दम तोड़ रही,
इस बदहाली की हालत में नव पल्लव भी जग छोड़ रही,
कैसी है यह दुर्दशा और इसका क्या समाधान है,
अपराधी यह दुनिया सारी दंडवत हो हाथों को जोड़ रही।
                                     ललित भट्ट ✍️🙏

©Lalit Bhatt

शीर्षक- हमारी सज़ा असहनीय यह गर्मी स्वाभाविक या कोई खता हमारी है, यह सोचने का भी समय और भुगतने की भी बारी है, जो पूर्व में किए हैं असामाजिक कृत्य हमने, निसंदेह यह उन्हीं की सज़ा हमारी है। कट रहे वृक्ष जो प्रतिदिन धारा भी तप रही है, पिघल रहे हिमनद अम्बर से अग्नि बरस रही है, क्या कु कृत्य कर रहा है हे मानव तू, गलती तेरी सजा मां प्रकृति भुगत रही है। जल रहे हैं जंगल पकी फसल जल रही है, देख हालात ऐसे किसान की मेहनत खल रही है, देख स्तब्ध हूं मैं इस दुर्दशा पर इंसान की, निकली थी जो हिमालय से अब अदृश्य चल रही है। हो रहा कैसा उलटफेर ऋतुओं में सब सोच रहे हैं, कभी शीत में तो कभी बसंत में सूर्य को कोस रहे है, कभी भूकम्प कभी तूफान कभी सुनामी को तैयार हैं, ऋतू बरसात की आने से पहले बाढ़ को सब पोंछ रहे हैं । सूख रहे जल स्रोत सब नदिया भी दम तोड़ रही, इस बदहाली की हालत में नव पल्लव भी जग छोड़ रही, कैसी है यह दुर्दशा और इसका क्या समाधान है, अपराधी यह दुनिया सारी दंडवत हाथों को जोड़ रही। ललित भट्ट ✍️🙏 ©Lalit Bhatt

#कविता  शीर्षक- हमारी सज़ा 
असहनीय यह गर्मी स्वाभाविक या कोई खता हमारी है,
यह सोचने का भी समय और भुगतने की भी बारी है,
जो पूर्व में किए हैं असामाजिक कृत्य हमने,
निसंदेह यह उन्हीं की सज़ा हमारी है।

कट रहे वृक्ष जो प्रतिदिन धारा भी तप रही है,
पिघल रहे हिमनद अम्बर से अग्नि बरस रही है,
क्या कु कृत्य कर रहा है हे मानव तू,
गलती तेरी सजा मां प्रकृति भुगत रही है।

जल रहे हैं जंगल पकी फसल जल रही है,
देख हालात ऐसे किसान की मेहनत खल रही है,
देख स्तब्ध हूं मैं इस दुर्दशा पर इंसान की,
निकली थी जो हिमालय से अब अदृश्य चल रही है।

हो रहा कैसा उलटफेर ऋतुओं में सब सोच रहे हैं,
कभी शीत में तो कभी बसंत में सूर्य को कोस रहे है,
कभी भूकम्प कभी तूफान कभी सुनामी को तैयार हैं,
ऋतू बरसात की आने से पहले बाढ़ को सब पोंछ रहे हैं ।

सूख रहे जल स्रोत सब नदिया भी दम तोड़ रही,
इस बदहाली की हालत में नव पल्लव भी जग छोड़ रही,
कैसी है यह दुर्दशा और इसका क्या समाधान है,
अपराधी यह दुनिया सारी दंडवत हाथों को जोड़ रही।
                                     ललित भट्ट ✍️🙏

©Lalit Bhatt

शीर्षक- हमारी सज़ा असहनीय यह गर्मी स्वाभाविक या कोई खता हमारी है, यह सोचने का भी समय और भुगतने की भी बारी है, जो पूर्व में किए हैं असामाजिक कृत्य हमने, निसंदेह यह उन्हीं की सज़ा हमारी है। कट रहे वृक्ष जो प्रतिदिन धारा भी तप रही है, पिघल रहे हिमनद अम्बर से अग्नि बरस रही है, क्या कु कृत्य कर रहा है हे मानव तू, गलती तेरी सजा मां प्रकृति भुगत रही है। जल रहे हैं जंगल पकी फसल जल रही है, देख हालात ऐसे किसान की मेहनत खल रही है, देख स्तब्ध हूं मैं इस दुर्दशा पर इंसान की, निकली थी जो हिमालय से अब अदृश्य चल रही है। हो रहा कैसा उलटफेर ऋतुओं में सब सोच रहे हैं, कभी शीत में तो कभी बसंत में सूर्य को कोस रहे है, कभी भूकम्प कभी तूफान कभी सुनामी को तैयार हैं, ऋतू बरसात की आने से पहले बाढ़ को सब पोंछ रहे हैं । सूख रहे जल स्रोत सब नदिया भी दम तोड़ रही, इस बदहाली की हालत में नव पल्लव भी जग छोड़ रही, कैसी है यह दुर्दशा और इसका क्या समाधान है, अपराधी यह दुनिया सारी दंडवत हाथों को जोड़ रही। ललित भट्ट ✍️🙏 ©Lalit Bhatt

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