भुगतना किसी ओर को पड़ता है
आग्नेय किसी ओर में है, जलना किसी ओर को पड़ता है,
ग़लती कोई ओर करें, भुगतना किसी ओर को पड़ता है,
क्या करे ये जमाना इतना बेईमान हो गया है,
यहाँ मेहनत कोई ओर करें फल किसी ओर को मिलता है,
सूरज कहीं ओर ढलता है, अँधेरा कहीं और छाता है,
दिल किसी का टूटता है, मलाल कोई और मनाता है,
सुबह होते ही हर इंसान एक नई उम्मीद लिए उठता है,
यहाँ पैसा कोई और कमाने जाता है, चैन की नींद कोई और सोता है,
माचिस लगती किसी ओर में, जलना किसी ओर को पड़ता है,
पायल पहनी किसी ओर ने, थिरकना किसी ओर को पड़ता है,
ये कहाँ का इंसाफ़ है मेरे प्रभु,
यहाँ इल्ज़ाम कोई ओर लगाएं, झुकना किसी ओर को पड़ता है,
फूल कोई ओर बोये, काटे किसी ओर को लगता है,
हंसता कोई और है, रोना किसी ओर को पड़ता है,
जिंदगी लगता है अब मजा़क सी हो गई,
यहाँ सपना कोई और देखें, उसे सजाने कोई और लगता है,
विष कोई फैलाता है, ग्रहण किसी और को करना पड़ता है,
अपनों में भी आज अंजान सा साया लगता है,
खेल शायद अब बहुत हुआ,
प्रयास कोई और करे किंतु विजय प्राप्ति कोई और करता है,
क्या कहूँ क्या न कहूँ, कहना सब बेकार सा लगता है,
आज कल भोला चेहरा भी मुझे शैतान सा लगता है,
इस दुनियाँ को बहुत आजमा कर देख लिया मैंने,
यहाँ गलती कोई ओर करें, भुगतना किसी ओर को पड़ता है॥
©Shivam kumar poetry lover
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