ढाई अक्षर प्रेम के, प्रेम को यदि लिखा जाता तो एहसास कैसे हो पाता,प्रेम लिखने मैं अधूरा है पर अहसास पूरा है, ये प्रेम को अधूरा तो कभी पूरा बनाना पड़ता है युही नहीं प्रेम को पाना पड़ता है, कभी मीरा तो कभी गोपी गीत गाना पड़ता है,यूंही नहीं एक कृष्ण की अनेक गोपियों को प्रेम मै समाना पड़ता है, कभी नादानी तो कभी रिझाना पड़ता है, यूंही नहीं प्रेम को पाना पड़ता है, कभी आवाज को सुनकर ही योगो को बिताना पड़ता है,तो कभी अपनी खुशियों को जता कर दुखो को छुपाना पड़ता है, यूंही नहीं प्रेम को पड़ता है, कभी नीले आसमान के नीचे उसकी आंखो की गहराई का अंदाजा लगाना पड़ता है, यूंही नहीं प्रेम को प्रेम मैं पाना पड़ता है, कभी गुस्से से उसे गले लगाना पड़ता है तो कभी प्यार से अलविदा कहना पड़ता है, प्रेम है साहब, दिलो को जलाकर प्रेम जताना पड़ता है, उसे गिराकर फिर ऊंचाइयों को छुपाना पड़ता है,कभी उसके लिए प्रेम मै होकर भी मुस्कारना पड़ता है, कभी राजा तो कभी फकीर रहना पड़ता है, प्रेम मै प्रेम को युही नहीं पाना पड़ता है, खुद को रुला कर उसको काबिल बनाना पड़ता है आंखो मै आंसू होठों पे मुस्कान लिए उसके पति को दोस्त जताना पड़ता है, प्रेम ही तो है कभी पतझड़ मैं बहार तो कभी बारिश मैं खुद को भिगाना पड़ता है।।
इंतज़ार के नाम पर अपना सब गवाना पड़ता है, फिर कभी उस खुदा की नजर पड़ी तो प्रेम को प्रेम दिलाना पड़ता है, प्रेम को प्रेम रहने दो साहब प्रेम है कोई जिंदगी नहीं जिसे आसान बनाना पड़ता है, अब चैन को सोने के लिए उसको भुलाना पड़ता है, तब कहीं जाकर प्रेम से रूह को मिलाना पड़ता है।
©SOUND_OF_SILENCE
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