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#love_shayari  White साथ तेरे कुछ इस तरह हम जिये
जैसे वो पल मेरी जिदंगी का आखरी हो

©zohra

White यादों में किसी का दीदार नहीं होता है l सिर्फ याद करना ही प्यार नहीं होता है ll यादों में किसी की हम भी तड़पते हैं l बस हमसे दर्द का इजहार नहीं होता है l l ©rohit singh

#sad_shayari #SAD  White यादों में किसी का दीदार नहीं होता है l
सिर्फ याद करना ही प्यार नहीं होता है ll
यादों में किसी की हम भी तड़पते हैं l
बस हमसे दर्द का इजहार नहीं होता है l
l

©rohit singh

सबसे पहले अपनी कमियों को भी नजरंदाज नहीं सुधारने का प्रयास किजिए बबली भाटी बैसला ©Babli BhatiBaisla

#विचार  सबसे पहले अपनी  कमियों को भी 
नजरंदाज नहीं सुधारने का प्रयास किजिए
बबली भाटी बैसला

©Babli BhatiBaisla

ज़हन में मेरे जिद बन कर तुम ही सवार हो मेरे ख्वाबों के दगल का तुम ही खिताब हो शायर की शायरी में तुम ही शराब हो दिवानगी में तुम्हारी मै हो गया शिकार तो बबली भाटी बैसला ©Babli BhatiBaisla

#शायरी  ज़हन में मेरे जिद बन कर तुम ही सवार हो 
मेरे ख्वाबों के दगल का तुम ही खिताब हो

शायर की शायरी में तुम ही शराब हो
 दिवानगी में तुम्हारी मै हो गया शिकार तो 
बबली भाटी बैसला

©Babli BhatiBaisla

White बांट दो सबको, संतुलन बना रहेगा पर संतुलन तो बराबरी हुई ना? जिसमें समन्वय सहयोग और समानता हो , यदि सामानता हुई तो ज्ञात होगा कभी? प्रजा कौन है,और राजा कौन? फर्क और हैसियत के बीच की पतली सी रेखा सबको ज्ञात होनी चाहिए कि तिलकधारी कभी झुकते नहीं, और क्षत्रिय भी कभी रुकते नहीं, व्यापारियों के बढ़ते प्यास ने बनाया जनता को एनीमिया का मरीज किसने निर्मित कि ये खाई, ऊंचे हैं स्वर्ण और शूद्र है नीच? स्वयं को उच्च गिनाने में व्यस्त है संसार, सुखन मोची ने कल ही बताया, धोबी से बड़ा है सर चमार दबाने और दबने से बचने के लिए, की जाती है चढ़ाई मिट्टी के टीलों पर, जिससे फिसलते मिट्टी के बड़े टुकड़े छोटे टुकड़ों को कुचलकर बढ़ना चाहते हैं आगे अभाव, असुरक्षा और अमानवीयता से बिलखते तड़पते जिस्मो के और कितने टुकड़े नोचें जाएंगे? जल जंगल जमीन से जुड़े हाशिये पर खड़े असभ्य लोग कब तक कहलाएंगे माओवादी? देश को स्वच्छ रखने वाले कब तक बने रहेंगे देश की गंदगी? कब मिलेगा इन्हें इनका हक और जीने के लिए जिंदगी? दलित आदिवासी कृषक,मजदूर और बेटियां व्यथित हैं,सभ्य समाज का ताना-बाना बुनने वाले लोगों की धारणा और व्यवहार से आतंकित है ये उसे दहशत से जिसकी आग बरसों पहले लगाई गई आधुनिक उदार विचार वाले सभ्य समाज के विचार तब तर्कसंगत नहीं लगते, जब अंतरजातीय विवाह के जिक्र मात्र से शुरू होता है आंतरिक द्वंद्व और बाहरी विवाद, तब यह विचार निष्पक्ष नहीं लगता जब अन्नदाता की भुखमरी उसकी मृत्यु का कारण बनती है, तब यह विचार प्रासंगिक नहीं लगते, जब गरीब मजदूर डेढ़ रुपए मजदूरी बढ़ाने के लिए देता है धरना और रोकना पड़ता है विरोध, मात्र 25 रुपए मासिक वृद्धि पर तब एक प्रश्न विचलित करता है, कि आखिर क्या मिलता होगा डेढ़ रुपए में यह विचार तक चुभने लगता है जब देश की प्रगति के नाम पर विस्थापित किए जाते हैं आदिवासी अपने ही घर से यह सोच तब तड़पाती है जब स्त्रियों की राय न पूछी जाती है न समझी पद की प्रतिष्ठा के सिवाय सामान्य स्तर पर मानवीय सम्मान की दृष्टि से उसके अस्तित्व को आज भी प्राथमिकता नहीं मिली क्या इन श्रेणियों में विभाजित जन.... जन गण मन का जन नहीं? क्या सम्मान केवल उच्च वर्ग के लिए आरक्षित है? या है उसे पर इनका भी हक यह सबरी केवट का देश है तो गली से इनका स्वागत क्यों? ये एकलव्य या कर्ण का देश है तो बोली से इनको आहत क्यों? जब जब ईश्वर भी अवतरित हुए, तो उच्च घराने चुन लिये अभिप्राय भला क्या समझूं मैं, भगवन भी के इनके सगे नहीं याचना नहीं तू रण करना, क्यों आखिर अब तक जगे नहीं अमानवता फैली हो, और तुम संतुलित रहे तो समझ लेना तो आतताई के पक्ष में हो ©Priya Kumari Niharika

 White बांट दो सबको,  संतुलन बना रहेगा
 पर संतुलन तो बराबरी हुई ना?
 जिसमें समन्वय सहयोग और समानता हो ,
 यदि सामानता हुई तो ज्ञात होगा कभी?
 प्रजा कौन है,और राजा कौन?
 फर्क और हैसियत के बीच की पतली सी रेखा
 सबको ज्ञात होनी चाहिए
 कि तिलकधारी कभी झुकते नहीं, 
और क्षत्रिय भी कभी रुकते नहीं,
 व्यापारियों के बढ़ते प्यास ने बनाया जनता को एनीमिया का मरीज
 किसने निर्मित कि ये खाई,  ऊंचे हैं स्वर्ण और शूद्र है नीच?
 स्वयं को उच्च गिनाने में व्यस्त है संसार,
 सुखन मोची ने कल ही बताया, धोबी से बड़ा है सर चमार 
 दबाने और दबने से बचने के लिए, की जाती है चढ़ाई
  मिट्टी के टीलों पर, जिससे फिसलते मिट्टी के बड़े टुकड़े
 छोटे टुकड़ों को कुचलकर बढ़ना चाहते हैं आगे 
 अभाव, असुरक्षा और अमानवीयता से बिलखते तड़पते जिस्मो के
 और कितने टुकड़े नोचें जाएंगे?
 जल जंगल जमीन से जुड़े हाशिये पर खड़े असभ्य लोग 
 कब तक कहलाएंगे माओवादी?
 देश को स्वच्छ रखने वाले कब तक बने रहेंगे देश की गंदगी?
 कब मिलेगा इन्हें इनका हक और जीने के लिए जिंदगी?
 दलित आदिवासी कृषक,मजदूर और बेटियां 
 व्यथित हैं,सभ्य समाज का ताना-बाना बुनने वाले लोगों की धारणा और व्यवहार से
 आतंकित है ये उसे दहशत से जिसकी आग बरसों पहले लगाई गई 
 आधुनिक उदार विचार वाले सभ्य समाज के विचार तब तर्कसंगत नहीं लगते,
 जब अंतरजातीय विवाह के जिक्र मात्र से शुरू होता है 
आंतरिक द्वंद्व और बाहरी विवाद,
 तब यह विचार निष्पक्ष नहीं लगता जब अन्नदाता की भुखमरी
उसकी मृत्यु का कारण बनती है,
 तब यह विचार प्रासंगिक नहीं लगते, जब गरीब मजदूर 
 डेढ़ रुपए मजदूरी बढ़ाने के लिए देता है धरना 
 और रोकना पड़ता है विरोध, मात्र 25 रुपए मासिक वृद्धि पर
तब एक प्रश्न विचलित करता है, कि आखिर क्या मिलता होगा डेढ़ रुपए में 
 यह विचार तक चुभने लगता है जब देश की प्रगति के नाम पर 
 विस्थापित किए जाते हैं आदिवासी अपने ही घर से
 यह सोच तब तड़पाती है जब स्त्रियों की राय न पूछी जाती है न समझी 
 पद की प्रतिष्ठा के सिवाय सामान्य स्तर पर 
मानवीय सम्मान की दृष्टि से उसके अस्तित्व को 
 आज भी प्राथमिकता नहीं मिली 
 क्या इन श्रेणियों में विभाजित जन.... जन गण मन का जन नहीं?
 क्या सम्मान केवल उच्च वर्ग के लिए आरक्षित है?
 या है उसे पर इनका भी हक 
 यह सबरी केवट का देश है तो गली से इनका स्वागत क्यों?
 ये एकलव्य या कर्ण का देश है तो बोली से इनको आहत क्यों?
 जब जब ईश्वर भी अवतरित हुए, तो उच्च घराने चुन लिये 
 अभिप्राय भला क्या समझूं मैं, भगवन भी के इनके सगे नहीं 
 याचना नहीं तू रण करना, क्यों आखिर अब तक जगे नहीं 
 अमानवता फैली हो, और तुम संतुलित रहे 
 तो समझ लेना तो आतताई के पक्ष में हो

©Priya Kumari Niharika
#कविता #love_shayari  White कौन कहता है तुम गलत हो
पर वो भी मां है न
तुम्हारे सपने,तुम्हारी उम्मीदें सब जिंदा हैं
तुम्हारे सपने,तुम्हारी उम्मीदें सब जिंदा हैं
पर उनका क्या,जिनकी हसरतें,हंसी खुशी बस खाक हैं,धुआं हैं 
तुम्हे जाना था चली गईं,पता नहीं ग़मो का बोझ उठाते हुए
या जहां को दिखाते हुए,पर वो 
 खामोश हैं इन दीवारों के सहारे अंधेरों से डरते हुए
देखा था तुमने न ,वो मां भी न बदहवाश थी
ग़मज़दा थी बिल्कुल तुम्हारी तरह,पर 
शौर्य के अलंकरण के बोझ से बेखबर 
महामहिम के सामने डरी सहमी सी खड़ी थी
हां बिल्कुल तुम्हारी तरह उसने भी सब कुछ खो दिया था
लेकिन तुम्हे उसने सब कुछ सौप दिया 
तुम्हे बेटा जो मान लिया था
लेकिन लेकिन लेकिन 
तुम! तुम निकली बेटी नहीं बेटा नहीं
महज एक साधारण सी बहू निकली
जिसने हमसफर कि कहानियों में 
बुढ़े मां बाप को गैर,मोहताज ,अनाथ बन दिया 
और चल पड़ी अपनी दुनिया को रौशन करने 
पर उनका क्या
राजीव

©samandar Speaks
#love_shayari  White साथ तेरे कुछ इस तरह हम जिये
जैसे वो पल मेरी जिदंगी का आखरी हो

©zohra

White यादों में किसी का दीदार नहीं होता है l सिर्फ याद करना ही प्यार नहीं होता है ll यादों में किसी की हम भी तड़पते हैं l बस हमसे दर्द का इजहार नहीं होता है l l ©rohit singh

#sad_shayari #SAD  White यादों में किसी का दीदार नहीं होता है l
सिर्फ याद करना ही प्यार नहीं होता है ll
यादों में किसी की हम भी तड़पते हैं l
बस हमसे दर्द का इजहार नहीं होता है l
l

©rohit singh

सबसे पहले अपनी कमियों को भी नजरंदाज नहीं सुधारने का प्रयास किजिए बबली भाटी बैसला ©Babli BhatiBaisla

#विचार  सबसे पहले अपनी  कमियों को भी 
नजरंदाज नहीं सुधारने का प्रयास किजिए
बबली भाटी बैसला

©Babli BhatiBaisla

ज़हन में मेरे जिद बन कर तुम ही सवार हो मेरे ख्वाबों के दगल का तुम ही खिताब हो शायर की शायरी में तुम ही शराब हो दिवानगी में तुम्हारी मै हो गया शिकार तो बबली भाटी बैसला ©Babli BhatiBaisla

#शायरी  ज़हन में मेरे जिद बन कर तुम ही सवार हो 
मेरे ख्वाबों के दगल का तुम ही खिताब हो

शायर की शायरी में तुम ही शराब हो
 दिवानगी में तुम्हारी मै हो गया शिकार तो 
बबली भाटी बैसला

©Babli BhatiBaisla

White बांट दो सबको, संतुलन बना रहेगा पर संतुलन तो बराबरी हुई ना? जिसमें समन्वय सहयोग और समानता हो , यदि सामानता हुई तो ज्ञात होगा कभी? प्रजा कौन है,और राजा कौन? फर्क और हैसियत के बीच की पतली सी रेखा सबको ज्ञात होनी चाहिए कि तिलकधारी कभी झुकते नहीं, और क्षत्रिय भी कभी रुकते नहीं, व्यापारियों के बढ़ते प्यास ने बनाया जनता को एनीमिया का मरीज किसने निर्मित कि ये खाई, ऊंचे हैं स्वर्ण और शूद्र है नीच? स्वयं को उच्च गिनाने में व्यस्त है संसार, सुखन मोची ने कल ही बताया, धोबी से बड़ा है सर चमार दबाने और दबने से बचने के लिए, की जाती है चढ़ाई मिट्टी के टीलों पर, जिससे फिसलते मिट्टी के बड़े टुकड़े छोटे टुकड़ों को कुचलकर बढ़ना चाहते हैं आगे अभाव, असुरक्षा और अमानवीयता से बिलखते तड़पते जिस्मो के और कितने टुकड़े नोचें जाएंगे? जल जंगल जमीन से जुड़े हाशिये पर खड़े असभ्य लोग कब तक कहलाएंगे माओवादी? देश को स्वच्छ रखने वाले कब तक बने रहेंगे देश की गंदगी? कब मिलेगा इन्हें इनका हक और जीने के लिए जिंदगी? दलित आदिवासी कृषक,मजदूर और बेटियां व्यथित हैं,सभ्य समाज का ताना-बाना बुनने वाले लोगों की धारणा और व्यवहार से आतंकित है ये उसे दहशत से जिसकी आग बरसों पहले लगाई गई आधुनिक उदार विचार वाले सभ्य समाज के विचार तब तर्कसंगत नहीं लगते, जब अंतरजातीय विवाह के जिक्र मात्र से शुरू होता है आंतरिक द्वंद्व और बाहरी विवाद, तब यह विचार निष्पक्ष नहीं लगता जब अन्नदाता की भुखमरी उसकी मृत्यु का कारण बनती है, तब यह विचार प्रासंगिक नहीं लगते, जब गरीब मजदूर डेढ़ रुपए मजदूरी बढ़ाने के लिए देता है धरना और रोकना पड़ता है विरोध, मात्र 25 रुपए मासिक वृद्धि पर तब एक प्रश्न विचलित करता है, कि आखिर क्या मिलता होगा डेढ़ रुपए में यह विचार तक चुभने लगता है जब देश की प्रगति के नाम पर विस्थापित किए जाते हैं आदिवासी अपने ही घर से यह सोच तब तड़पाती है जब स्त्रियों की राय न पूछी जाती है न समझी पद की प्रतिष्ठा के सिवाय सामान्य स्तर पर मानवीय सम्मान की दृष्टि से उसके अस्तित्व को आज भी प्राथमिकता नहीं मिली क्या इन श्रेणियों में विभाजित जन.... जन गण मन का जन नहीं? क्या सम्मान केवल उच्च वर्ग के लिए आरक्षित है? या है उसे पर इनका भी हक यह सबरी केवट का देश है तो गली से इनका स्वागत क्यों? ये एकलव्य या कर्ण का देश है तो बोली से इनको आहत क्यों? जब जब ईश्वर भी अवतरित हुए, तो उच्च घराने चुन लिये अभिप्राय भला क्या समझूं मैं, भगवन भी के इनके सगे नहीं याचना नहीं तू रण करना, क्यों आखिर अब तक जगे नहीं अमानवता फैली हो, और तुम संतुलित रहे तो समझ लेना तो आतताई के पक्ष में हो ©Priya Kumari Niharika

 White बांट दो सबको,  संतुलन बना रहेगा
 पर संतुलन तो बराबरी हुई ना?
 जिसमें समन्वय सहयोग और समानता हो ,
 यदि सामानता हुई तो ज्ञात होगा कभी?
 प्रजा कौन है,और राजा कौन?
 फर्क और हैसियत के बीच की पतली सी रेखा
 सबको ज्ञात होनी चाहिए
 कि तिलकधारी कभी झुकते नहीं, 
और क्षत्रिय भी कभी रुकते नहीं,
 व्यापारियों के बढ़ते प्यास ने बनाया जनता को एनीमिया का मरीज
 किसने निर्मित कि ये खाई,  ऊंचे हैं स्वर्ण और शूद्र है नीच?
 स्वयं को उच्च गिनाने में व्यस्त है संसार,
 सुखन मोची ने कल ही बताया, धोबी से बड़ा है सर चमार 
 दबाने और दबने से बचने के लिए, की जाती है चढ़ाई
  मिट्टी के टीलों पर, जिससे फिसलते मिट्टी के बड़े टुकड़े
 छोटे टुकड़ों को कुचलकर बढ़ना चाहते हैं आगे 
 अभाव, असुरक्षा और अमानवीयता से बिलखते तड़पते जिस्मो के
 और कितने टुकड़े नोचें जाएंगे?
 जल जंगल जमीन से जुड़े हाशिये पर खड़े असभ्य लोग 
 कब तक कहलाएंगे माओवादी?
 देश को स्वच्छ रखने वाले कब तक बने रहेंगे देश की गंदगी?
 कब मिलेगा इन्हें इनका हक और जीने के लिए जिंदगी?
 दलित आदिवासी कृषक,मजदूर और बेटियां 
 व्यथित हैं,सभ्य समाज का ताना-बाना बुनने वाले लोगों की धारणा और व्यवहार से
 आतंकित है ये उसे दहशत से जिसकी आग बरसों पहले लगाई गई 
 आधुनिक उदार विचार वाले सभ्य समाज के विचार तब तर्कसंगत नहीं लगते,
 जब अंतरजातीय विवाह के जिक्र मात्र से शुरू होता है 
आंतरिक द्वंद्व और बाहरी विवाद,
 तब यह विचार निष्पक्ष नहीं लगता जब अन्नदाता की भुखमरी
उसकी मृत्यु का कारण बनती है,
 तब यह विचार प्रासंगिक नहीं लगते, जब गरीब मजदूर 
 डेढ़ रुपए मजदूरी बढ़ाने के लिए देता है धरना 
 और रोकना पड़ता है विरोध, मात्र 25 रुपए मासिक वृद्धि पर
तब एक प्रश्न विचलित करता है, कि आखिर क्या मिलता होगा डेढ़ रुपए में 
 यह विचार तक चुभने लगता है जब देश की प्रगति के नाम पर 
 विस्थापित किए जाते हैं आदिवासी अपने ही घर से
 यह सोच तब तड़पाती है जब स्त्रियों की राय न पूछी जाती है न समझी 
 पद की प्रतिष्ठा के सिवाय सामान्य स्तर पर 
मानवीय सम्मान की दृष्टि से उसके अस्तित्व को 
 आज भी प्राथमिकता नहीं मिली 
 क्या इन श्रेणियों में विभाजित जन.... जन गण मन का जन नहीं?
 क्या सम्मान केवल उच्च वर्ग के लिए आरक्षित है?
 या है उसे पर इनका भी हक 
 यह सबरी केवट का देश है तो गली से इनका स्वागत क्यों?
 ये एकलव्य या कर्ण का देश है तो बोली से इनको आहत क्यों?
 जब जब ईश्वर भी अवतरित हुए, तो उच्च घराने चुन लिये 
 अभिप्राय भला क्या समझूं मैं, भगवन भी के इनके सगे नहीं 
 याचना नहीं तू रण करना, क्यों आखिर अब तक जगे नहीं 
 अमानवता फैली हो, और तुम संतुलित रहे 
 तो समझ लेना तो आतताई के पक्ष में हो

©Priya Kumari Niharika
#कविता #love_shayari  White कौन कहता है तुम गलत हो
पर वो भी मां है न
तुम्हारे सपने,तुम्हारी उम्मीदें सब जिंदा हैं
तुम्हारे सपने,तुम्हारी उम्मीदें सब जिंदा हैं
पर उनका क्या,जिनकी हसरतें,हंसी खुशी बस खाक हैं,धुआं हैं 
तुम्हे जाना था चली गईं,पता नहीं ग़मो का बोझ उठाते हुए
या जहां को दिखाते हुए,पर वो 
 खामोश हैं इन दीवारों के सहारे अंधेरों से डरते हुए
देखा था तुमने न ,वो मां भी न बदहवाश थी
ग़मज़दा थी बिल्कुल तुम्हारी तरह,पर 
शौर्य के अलंकरण के बोझ से बेखबर 
महामहिम के सामने डरी सहमी सी खड़ी थी
हां बिल्कुल तुम्हारी तरह उसने भी सब कुछ खो दिया था
लेकिन तुम्हे उसने सब कुछ सौप दिया 
तुम्हे बेटा जो मान लिया था
लेकिन लेकिन लेकिन 
तुम! तुम निकली बेटी नहीं बेटा नहीं
महज एक साधारण सी बहू निकली
जिसने हमसफर कि कहानियों में 
बुढ़े मां बाप को गैर,मोहताज ,अनाथ बन दिया 
और चल पड़ी अपनी दुनिया को रौशन करने 
पर उनका क्या
राजीव

©samandar Speaks
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