कलि का युग कलि–युग यहां, तुम राम की आस लगाए हो।
न धर्म पताका कभी लिया हाँथ,तुम बाण मुझपे चलाए हो।।
है क्या कौशल तुम्हरे भीतर?
हो झांक सके अपने भीतर?
मैं दसों इन्द्री विजित प्रचंड,दशानन नाम धराता हूं।
है बाहुबल मुझमें इतना की, देह पर कैलाश सधाता हूं।
मैं हूं विश्रवा का वो सुत जिसने, वशी किया अविनाशी को ।
फिर तू कौन होता है जो
दाह दे विन्यासी को।।
मैं वो हूं जिसने काल को भी, माया में अपनी फसा लिया।
रच तांडव कैलाश -पति पर , अपना मस्तक चढ़ा दिया।
त्रिलोक विजयी मैं परम प्रतापी , बस माया का मारा हूं ।
साधु बन एक पति–व्रता का, मैं हरण करने वाला हूं।
था जो पाप किया मैने, दुष्फल उसका भोग लिया।
जब चला बाण धर्म–पति का
अधर्म का अमृत सुखो दिया।।
@susheel Pandit
©susheel sk
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