कहता संघर्ष ये !
इक संघर्ष कि एक दस्ता,
संघर्ष ही आज सुनाएगा।
हर चंचल चित्त की उत्सुकता को,
छन्दों से आज मिटाएगा।।
कहता संघर्ष ये (2) -
सुन तानो का शोर यु बहुधा,
मैदान भी मैंने त्यागा था।
उग्र उपहास कि अनल में तपकर,
शीतल रैन में जागा था।।
कलित मुखड़ों की आड़ में मैंने,
विष प्याले पलते देखे है।
तनिक प्रकाश कि चाह में अक्सर,
दिये दुर्बल जलते देखे है।।
हर जीवन के कालचक्र पर,
मिथ्य यथार्थ को पाया है।
इन दोनों से परेय निकलकर,
शोभन का साथ निभाया है।।
जहाँ भी जाओ इस धरणी पर,
हर देह में मुझको पाओगे ।
किसी मे सोया किसी मे जागा,
पर मुझ बिन ना रह पाओगे।।
सिद्धि भी मेरी राह से होकर,
गुण मेरे सब गाती है।
विधि,भाग्य है झूठी बाते,
सिर्फ कर्म ही मेरा साथी है।।
विचलित चित्त के हर कोने को,
छन्द से मेरे मिलवा दो।
हर चंचल मन की उत्सुकता को,
इन छन्दों से बिलवा दो।।
इक संघर्ष कि एक दस्ता,
संघर्ष ही आज है सुना रहा।
हर चंचल चित्त की उत्सुकता को,
छन्दों से आज है मिटा रहा
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