हर कहानी के कीरदार का मरकज बन जाता हु
वोह ख़ास है सोचकर में तरकश बन जाता हु
कुर्बत इंसानों से, समझदारी से कर नादान-ए-दिल
वरना हिज्र में हर बार, में ही पत्थर बन जाता हु
यह शाम आंखों से देखती है और सब छुपाती है
इतना नजरे चुराती है की बार बार लाश बन जाता हु
यह उम्मीद रिश्ते की टिकी हुई है दबे हुए अधरों पर
जहां में अपने लफ्जों की ख़ामोशी रख, घर बन जाता हु
कासिद हर फासला मिटाता है कौवों से, कबूतरों से
जो हर बार में उसके छत का छोटा सा दाना बन जाता हु
एक शक्स को यादों के सहारे हर शब जहन में उतारता हु
में इतना बर्बाद होता हु की हर शब शराब बन जाता हु
'आगम' भीड़ में रहना दरिया से भी होता है मुश्किल, की
अरमानों को कुचलकर हर रोज खुदका खुदा बन जाता हु
~आगम
©aagam_bamb
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