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मुकद्दर मैं शायद नमाज़ और अज़ान ही थी उसके वो ताउम्र मस्जिद की देहलीज़ पे बैठा रहा. ©Sahil
Sahil
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मैंने हमेशा अपनों से डरना सीखा है ज़कात और खैरात बस गैरों से ही तो मिली है ©Sahil
आज आईने मैं अपने ही अक्स को जिंदा पाया मैं थक कर बैठ गया था इसलिए बेज़ुबान हूँ ©Sahil
जो कल खिलते गुलाब देखे बागबां मैं आँगन मैं अपने मिट्टी के ना होने का ग़म जाना ©Sahil
एक सलवार सा बंधा रहा ये जीवन गांठें जो खुली तो बेआबरू हो गए ©Sahil
तुम मुझे ऊँचे तख्त पर मत बैठाना वहां शराफ़त बैठा करती है हम अदब और सलूक वाले लोग हैं जल्द ही गिर जाया करते हैं ©Sahil
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